वात, पित्त और कफ आदि दोषों का और पुरीष आदि शारीरिक मलों का अगर समय पर शोधन न किया जाय तो वे अधिक कुपित होकर शारीर का विनाश भी कर सकते हैं.

उपचारों के द्वारा शांत किये गए दोष पुनः कुपित हो सकते हैं, पर जिन दोषों को वमन, विरेचन आदि संशोधन क्रियाओं के द्वारा शुद्ध किया गया हो, वो पुनः कुपित नहीं होते. आयुर्वेद शाश्त्र में शमन और शंशोधन – चिकित्सा की दो विधियाँ हैं. इनमे समय पर किया गया संशोधन अधिक उपयोगी होता है. अगर संचय्काल में ही बढे हुए दोषों का संशोधन कर दिया जाये, तो प्रकोप के समय पर वे दोष कुपित नहीं होंगे. पर अगर आप इन दोषों को पाचन आदि उपचारों से शांत करेंगे तो ये समय होने पर दोबारा कुपित हो जायेंगे.

शंशोधन के बाद विधि पूर्वक सिद्ध किये हुए रसायनों और वीर्यवर्धक योगों का उपयोग करना चाहिए. रसायनों और वाजीकरण योगों का प्रयोग संशोधन के बाद ही करना चहिये क्यूंकि तब उनका प्रयोग अधिक लाभदायक होता है, जैसे स्वच्छ और साफ़ वस्त्रों पर रंग का असर अधिक होता है, उतना मैले वस्त्रों पर नहीं होता. इसके साथ ही देश, काल और शारीरिक तथा मानसिक बल पर ध्यान देना भी आवश्यक है.

जिसके सेवन से रस-रक्त आदि धातुओं की वृद्धि हो ‘रसायन’ कहा जाता है. रसायन अधिक मूल्यवान होते है इसलिए सर्वसाधारण के लिए आचाररसायन का प्रावधान है जिसका पालन कोई भी पुरुष कर सकता है.

वृष्य या वाजीकरण का प्रयोग वीर्य को बढाकर उसे पुष्ट करने के लिए और रतिक्रिया को बढ़ने के लिए किया जाता है. इसका सेवन दुराचार में लिप्त होने के लिए कभी नहीं करना चाहिए.

संशोधन चिकित्सा से शारीर के दुर्बल हो जाने पर निम्नलिखित आहारों द्वारा शारीर को पुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए – शालिधान्यों, सथिधान्यों, गेहूं, मुंग, मांस, घी आदि से निर्मित भोजन दें. भोजन रुचिकर हो, अग्निवर्धक हो और औषध द्रव्यों (जीरा, धनिया आदि) से परिपूर्ण पाचन शक्ति को बढ़ने वाला हो. इसके अतिरिक्त मालिश, स्नान आदि का प्रयोग करें. इस प्रकार का आहार आदि करने से शारीर को सुख मिलने लगता है और सर्वपावकपाटव (पाचक, भ्राजक, रंजक, आलोचक तथा साधक इन सभी) में कुशलता आ जाती है.

बाहरी कारणों से होने वाले रोगों को आगंतुज रोग कहा जाता है.

आंतरिक और आगंतुज रोग उत्पन्न ही न हों इस प्रकार के उपाय करने चाहिए. अपने आहार-विहार और आचरणों को देश-काल के अनुकूल रखना चाहिए और अपने मन को भी वश में रखना चाहिए.

शीत हेमंत ऋतू में जिस दोष (कफ) का संचय होता है उसका शोधन वसंत ऋतू में करना चाहिए. ग्रीष्म ऋतू में जिस दोष (वात) का संचय होता है उसका शोधन प्रावृट ऋतू में करना चाहिए और वर्षा ऋतू में जिस दोष (पित्त) का संचय होता है उसका शोधन शरद ऋतू में करना चाहिए. यदि आप ऐसा करते हैं तो ऋतुओं के कुप्रभाव से बचे रहेंगे.

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