तेल शब्द की उत्पत्ति तिल से हुई है इसलिए तेलों में तिल के तेल को मुख्य माना गया है. सभी तेल अपने अपने उत्पत्ति कारकों के समान गुणधर्मो वाले होते हैं.

तिल का तेल तीक्ष्ण, व्यवाई अर्थात शीघ्र फैलने वाला, त्वग्दोषनाशक, नेत्रों के लिए हानिकारक, सूक्ष्म तथा उष्ण होता है. यह स्निग्ध होने पर भी कफकारक नहीं होता. जो पुरुष दुर्बल हैं उन्हें सबल करता है और जो स्थूल हैं उन्हें कृष करता है. पुरीष को बांधता है, कृमीनाशक है और संस्कार करने से वात आदि रोगों को नष्ट करता है.

एरण्डतैल के गुण

एरण्ड का तेल कुछ कटु, तिक्त और मधुर रस वाला होता है. यह विरेचक और पचने में भारी होता है. यह अंडवृद्धि, गुल्मरोग, वातरोग, कफरोग, उदररोग, और विषमज्वर का विनाश करता है. कमर, गुह्यप्रदेश, सभी कोष्ठों के अवयवों, पीठ की पीढ़ा और सूजन को हर लेता है.

लाल एरण्ड का तेल तीक्ष्ण, उष्ण, पिच्छिल, और अप्रिय गंध वाला होता है.

सरसों का तेल

सरसों का तेल, कटु, उष्ण, और तीक्ष्ण होता है. यह कफ, शुक्र और वात दोष नाशक है. लघु, और पित्त और रक्तवर्धक है. कोठ, कुष्ठ रोग, अर्शोरोग, व्रण तथा कृमियों को नष्ट करता है. सरसों वर्ण से दो प्रकार की होती है – लाल तथा पीली. इनमे लाल सामान्य है.

वहेडे की गिरी का तेल

बहेडे का तेल मधुर, शीतल, बालों के लिए हितकर, पचने में भारी, पित्त तथा वात विकारों का शमन करता है.

नीम की गिरी का तेल

निबोलियों से निकला गया तेल अधिक उष्णवीर्य वाला नहीं होता. यह स्वाद में तिक्त होता है, कृमियों का नाश करता है. कुष्ठ रोगों में लाभप्रद है और कफ जनित रोगों का नाश करता है.

अतसी एवम कुसुम्भ तेल

यह तेल उष्णवीर्य होते है. त्वचा के विकारों, कफदोश एवम पित्तदोषों को बढ़ाते है.

स्थावर तेलों की संख्या अनंत हो सकती है.

प्राणिज स्नेह

वसा तथा मज्जा स्नेहों की प्राप्ति प्राणियों से की जाती है. ये दोनों स्नेह वात नाशक, बल, पित्त और कफ को बढ़ाते हैं. ये मांस के सामान ही गुण वाले होते हैं. मेदो धातु के गुण भी वसा-मज्जा के सामान होते है.

Discover more from Facile Wellness

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading