रोगानुत्पादनिय अष्टांगहृदयं का चौथा अध्याय है. इसका अर्थ है रोगों की उत्पत्ति की रोकथाम. वो प्रयास जिसके कारण रोगों से बचा जा सके. आयुर्वेद में स्वास्थ्य की रक्षा को सर्वप्रथम महत्वपूर्ण माना गया है. अगर आप आहार-विहार आदि दिनचर्या और ऋतुचर्या का ध्यान रखें तो रोगों से बचे रहेंगे. और अगर रोग आते भी हैं तो उनका उचित उपचार यथाशीघ्र करना चाहिए, अन्यथा रोगों का उपचार कठिन हो जाता है और कभी-कभी अधिक उपेक्षा करने से रोग असाध्य भी हो जाते है.

अधार्णीय वेग

इसका अर्थ है शारीर के वेग जिनको धारण नहीं करना चाहिए, अर्थात रोकना नहीं चाहिए.

  • अपानवायु (पाद)
  • मल-मूत्र
  • छींक
  • प्यास
  • भूख
  • निद्रा
  • कास (कफ, खांसी)
  • श्रम्जनित स्वाष
  • ज्रिम्हा (जम्हाई)
  • आंसू
  • छरदी (वमन, उलटी करना)
  • शुक्र (semen)

इन सभी वेगों को रोकना नहीं चाहिए, क्यूंकि इन सब के जरिए शरीर में जो मल हैं वे बाहर निकलते हैं. अगर इनको रोकते हैं तो शरीर से मल आदि के न निकल पाने से शरीर में रोग पैदा होते हैं.

तेजी से जिसका प्रवाह हो उसे ही वेग कहते हैं. जैसे वेग से प्रवाहित नदी को रोकने से जल उचल कर ऊपर की ओर जाने लगता है, उसी प्रकार इन वेगों को रोकने से ये उलटी दिशा में बहने लगते है, इन्हें निकलना तो है ही, फिर ये जहाँ से निकलना चाहिए, वहां से न निकलकर कहीं और से निकलते हैं. और अगर न निकल पायें, तो शरीर को हानी पहुंचाते हैं. इसे ही उदावर्त – अर्थात – उल्टा घुमाव, रोग कहते हैं.

इसी लिए कहा गया है – ‘वेगान ना धारयेत’ – वेगों को धारण न करें, वेगों को ना रोकें.

अपानवायु को रोकने के दुष्परिणाम

उदावर्त, अपच, पेट में दर्द, अफरा, आँखों की रौशनी में कमी, कब्ज या मलबंध और ह्रदय सम्बन्धी रोग हो सकते हैं. ये समस्याएँ वायु के रुकने की वजह से होती हैं.

मल-मूत्र रोकन के दुष्परिणाम

पुरीष के वेग को रोकने से पिंडलियों की मस्पेशियों में दर्द, सर दर्द, बहती नाक, मुह की बदबू, वायु का उलटी दिशा में जाना, गुद्बलियों में कैंची के काटने जैसी पीड़ा, मुख से मल का निकलना आदि लक्षण होते हैं.

मूत्र के वेग को रोकने से अंग-अंग में टूटने जैसी पीड़ा, पथरी रोग का होना, मूत्राशय में, मूत्रमार्ग में, कूल्हों में, और गुर्दों में पीड़ा होना तथा अपानवायु और पुरीष के वेग को रोकने से होने वाले दुष्परिणाम भी हो सकते हैं.

अपानवायु, मल-मूत्र के वेग को रोकने से उत्पन्न स्थिति को नियंत्रित करना या उक्त रोगों की चिकित्सा

  • गुद्-मार्ग में मल प्रवर्तिनी वर्ती का प्रयोग करें (rectal and urethral suppositories)
  • उदर के ऊपर अभ्यंग कराएं
  • स्वेदन तथा बस्ती कर्म कराएं
  • ऐसा भोजन करें जो शुद्धिकरण में सहायक हो
  • मुत्र्वेग को रोकने से उत्पन्न रोगों में अवपिड़क धृत का सेवन करें अर्थात भोजन से पहले और पचने के बाद घी पियें. इस प्रकार दो बार सेवन किये गए घी को अवपिड़क कहते हैं.

उद्गार (डकार) वेग को रोकने के परिणाम

  • भोजन की इच्छा न होना
  • कंप-कपि का होना
  • ह्रदय एवं फुफुस की गति में रूकावट
  • अफरा, कास तथा हिचकी

छींक के वेग को रोकने से होने वाली हानि

  • सर में पीड़ा
  • कान आदि ज्ञानेन्द्रियों में दुर्बलता
  • मंयास्ताम्भ (गर्दन में अकडन)
  • अर्दित (मुख प्रदेश का लकवा)

इन रोगों की चिकित्सा तीक्ष्ण द्रव्यों के धुम्रपान से, तीक्ष्ण द्रव्यों से बनाये अंजन से, तीक्ष्ण द्रव्यों की नस्य से, सूर्य की ओर देखकर पुनः छींककर तथा स्नेहन तथा स्वेदन से करें.

तृषा वेग को रोकने से हानि

  • मुख का सुखना
  • शरीर की शिथिलता
  • बधिरापन
  • मोह, भ्रम तथा ह्रदय रोग की उत्पत्ति हो सकती है.

इस स्थिति में सभी प्रकार के आहार-विहार तथा शीत-चिकित्सा करनी चाहिए.

भूख के वेग को रोकने से हानि

  • शरीर में टूटने की सी पीड़ा
  • अरुचि
  • ग्लानी
  • कृशता का अनुभव होना
  • शूल तथा चक्कर आना

इस स्थिति में हल्का स्निग्ध (धृत युक्त या छोंका हुआ), गरम, थोडा रुचिकर भोजन देना चाहिए.

निद्रा वेग को रोकने से हानि

  • मोह (बेहोशी)
  • सर तथा आँखों में भारीपन
  • आलस्य
  • जम्भाई
  • अंगों में मसल देने जैसी पीड़ा होती है.

इस प्रकार के रोगी को भरपूर सोने दें तथा नींद आने तक उसके हात-पैर तथा सर को दबाना चाहिए.

कास वेग को रोकने से हानि

कास वेग को रोकने से कास रोग में वृद्धि, स्वाश रोग, अरुचि, ह्रदय रोग, शोष, हृध्मा आदि रोगों की उत्पत्ति हो सकती है. इसमें कास रोग चिकित्सा पद्धति का प्रयोग करना चाहिए.

श्रम्स्वाश के वेग को रोकने से हानि

श्रम के कारण बढ़ी हुई सांस के वेग को रोकने से गुल्मरोग, ह्रदय सम्बन्धी रोग तथा मूर्च्छा रोग हो जाते हैं. इस स्थिति में विश्राम करना चाहिए और वात नाशक अभ्यंग आदि उपचार करने चाहिए.

जम्भाई के वेग को रोकने से हानि

  • सर में पीड़ा
  • कान आदि ज्ञान्नेद्रियों में कमजोरी
  • मन्यास्थाम्भ
  • अर्दित रोग

इन सभी रोगों की वात नाशक चिकित्सा करनी चाहिए.

अश्रु वेग को रोकने से हानि

  • पीनस (प्रतिश्याय)
  • नेत्र रोग
  • शिरोरोग
  • ह्रदय रोग
  • मान्यास्तम्भ
  • अरुचि
  • चक्करों का आना
  • गुल्म रोग

इन रोगों के हो जाने पर शयन करना, मध्य आदि का सेवन करना, मनोहर कथाएं सुनाना तथा समझाने-बुझाने वाली बातें करना हितकर होता है.

छरदी वेग को रोकने से हानि

  • विसर्प रोग
  • कोठ (चकते पड जाना)
  • कुष्ठ रोग
  • नेत्र रोग
  • कंडू (खुजली)
  • पांडू रोग
  • ज्वर
  • स्वास
  • जी मिचलाना
  • व्यंग
  • शोथ रोग

इन रोगों की चिकित्सा – गान्दूशधारण, धूमपान, उपवास, रुक्ष अन्नों का सेवन, भोजन करके तत्काल वमन करा देना, व्यायाम करना, विसर्प आदि में रक्त श्रावण कराएं, विरेचन कराएं तथा क्षार एवं नमक युक्त तेल के मालिश कराएं.

शुक्र के वेग को रोकने के कारण उत्पन्न रोग

  • मूत्र के साथ शुक्र का निकलना
  • लिंग, भग आदि में पीड़ा
  • सूजन हो जाना
  • ज्वर
  • ह्रदय में पीड़ा
  • मूत्र की प्रवृत्ति में रूकावट
  • अंग में टूटन की सी पीड़ा का होना
  • अंगड़ाईयों का आना
  • अंडवृद्धि
  • अश्मरी
  • नपुंसकता

ये रोग नर और नारी, दोनों में होते हैं. रोग की चिकित्सा के लिए मुर्गे का मांस, सूरा, शालीधान्य, उत्तरबस्ती, अभ्यंग (मालिश), अवगाहन, बस्ती शोधक मूत्र प्रवर्तक गोखरू आदि से पकाए गए दूध का तथा मैथुन क्रिया का सेवन करें.

धारण करने योग्य वेग

  • लोभ
  • इर्ष्या
  • मत्सरता
  • राग
  • द्वेष

इन वेगो को धारण करने से अर्थात रोकने से पुरुष (नर-नारी) इस लोक में तथा परलोक में भी सुख को प्राप्त होते हैं.

Discover more from Facile Wellness

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading