काल अर्थात समय या मौसम, अर्थ – जिसे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जा सकता है और कर्म – मन, वाणी और शारीर की प्रवृति या चेष्टा – इन तीनो के हीन योग, अति योग और मिथ्या योग से ही रोगों की उत्पत्ति होती है. इन तीनो का सम्यक योग स्वास्थ रहने का कारण है.
आयुर्वेद की दृष्टि में काल तीन प्रकार का है इसे आप मौसम भी कह सकते है – शीत काल, उष्ण काल और वर्षा काल. इन्ही कालों के समूह को वर्ष, वत्सर या संवत्सर भी कहते हैं. शीत, उष्ण और वर्षा का अधिक होना अतियोग है, कम होना हीनयोग है और अपनी सीमा के विपरीत होना मिथ्यायोग है.
जिन विषयों को आप अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण कर सकते हैं वाही अर्थ है. अर्थों का इन्द्रियों के साथ अधिक संयोग अतियोग है, कम संयोग होना हीनयोग है और अनिष्टकारी संयोग होना मिथ्या योग है.
शारीर, मन और वाणी के प्रयास को कर्म कहते है. अधिक कर्म अतियोग है, कर्म की कमी हीनयोग है और हानिकारक कर्म को अनिष्टयोग कहते हैं.
किसी भी रोग की उत्पत्ति का कारण काल, अर्थ और कर्म का अधिक, कम या अनिष्टकारी होना है. इसके आलावा जो समुचित योग है उसे सम्यग्योग कहा गया है. सम्यग्योग आरोग्य का या स्वास्थ्य का आधार है.
रोग और आरोग्य में भेद
जब वात, पित्त और कफ सम न होकर विषम अवस्था में हों तो ये रोग उत्पन्न करता है और जब ये सामान अवस्था में हों तो शारीर स्वास्थ रहता है. रोग दो प्रकार के हो सकते हैं – १. जो वात, पित्त और कफ की विषमता से हो – ये निजी या आंतरिक रोग के जाते हैं. २. अभिघात या किसी भी बाहरी कारणों से होने वाले रोगों को आगंतुज़ कहा गया है. रोगों के दो आश्रयस्थान हैं – काय या शारीर और मन. ज्वर, रक्तपित्त, कास, स्वास आदि काय रोग हैं और मद, मूरछा, सन्यास, राग-द्वेष आदि मानसिक रोग हैं.
मानस या मन के दो दोष हैं – रजोगुण और तमोगुण. ये दोनों गुण एक साथ ही रहते हैं. सत्वगुण निर्विकार है और मानसिक स्वास्थ का कारण है. सत्वं = अस्तित्व युक्त. राजस = राग या आसक्ति युक्त और तामस = विनाशकारक प्रधान गुण होता है.
देखकर, हाथ से छुकर और रोग के विषय में अलग-अलग प्रश्न पूछ कर रोगी की परीक्षा की जा सकती है. रोगी की परीक्षा में आधुनिक उपकरणों का भी प्रयोग किया जा सकता है. रोगज्ञान के उपाय – निदान, लक्षण, पूर्वरूप, उपशय तथा संप्राप्ति से रोग की परीक्षा की जानी चाहिए.
देश्भेदों का वर्णन
आयुर्वेद में – भूमिदेश और देह्देश – ये दो प्रकारों के देश का वर्णन है. शारीर के विभिन्न अवयवों को देह्देश कहा गया है. भूमि देश तीन प्रकार के हैं – जंगल देश – यहाँ हवा अधिक चलती है. आनुप देश यहाँ कफ दोष प्रधान होता है और साधारण प्रदेश – इस देश में तीनो दोष सामान अवस्था में रहते हैं. जंगल देश में पित्तज, रक्तज और वातज रोग अधिक होते है. ये प्रदेश सूखे प्रदेश हैं जैसे बीकानेर, जैसलमेर आदि. आनुप देश में जल पहाड़ आदि अधिक होते हैं और यहाँ कफज और वातज रोग अधिक होते हैं. साधारण प्रदेश में तीनो दोष समुचित मात्र में होने के कारण यहाँ के निवासी अधिक स्वास्थ होते हैं जैसे उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि.
काल के भेद
आयुर्वेद में काल दो प्रकार का है – १. क्षण – प्रातः काल और सायं काल. २. रोग की अवस्था (आमावस्था और जीर्णावस्था). इन दोनों के अनुसार ही चिकित्सा की जानी चाहिए.
औषध के भेद
१. वामन-विरेचन आदि विधियों से रोग को निकलना शोधन कहलाता है और २. बढे हुए दोषों को शांत करने को शमन कहते हैं. वात दोष की चिकत्सा में बस्ती-प्रयोग, पित्त दोष की चिकत्सा में विरेचन प्रयोग और कफ दोष की चिकत्सा में वमन-प्रयोग है. वात दोष में तैल, पित्त दोष में घृत और कफ दोष में मधु का प्रयोग उचित शमन चिकत्सा है.
बुद्धि तथा धैर्य से व्यवहार करना और आत्मादी विज्ञान ( कौन मेरा है, क्या मेरा बल है आदि) का विचार कार्य करना मानसिक दोषों की उत्तम चिकत्सा है.
चिकित्सा के चार पाद
- वैध्य या चिकत्सक – चिकत्सक को कुशल, ज्ञानी, जिसने चिकत्सा की विधियों को अनेक बार परखा हो और शारीर तथा आचरण से पवित्र होना चाहिए.
- द्रव्य या औषधि – औषधि ऐसी हो जो कई रूपों में दी जा सके, जो औषधि के सभी गुणों से परिपूर्ण हो, गुणों की संपत्ति से संपन्न हो और रोगी, देश-काल के अनुरूप हो.
- परिचारक – रोगी से स्नेह रखने वाला, शुद्ध या साफ़-सुथरा हो, कुशल हो और बुद्धिमान हो.
- रोगी – रोगी के पास धन आदि हो, चिकत्सक के परामर्श के अनुसार आचरण करने वाला हो, अपने सुख-दुःख कह सके और चिकत्सा काल के कष्टों से ना घबराये, ऐसा हो.
चिकत्सा के चार पादों में चिकत्सक प्रधान होता है. बाल रोगी अपने बात को ठीक प्रकार से कह नहीं सकता इसलिए चिकत्सक को उसे समझना चाहिए.
रोगों के भेद
- साध्य – १. सुख साध्य और २. कष्ट साध्य.
- असाध्य – १. कुछ दिन चिकत्सा द्वारा चलने योग्य और २. जवाब देकर चिकत्सा करने योग्य.
- जो रोग उचित चिकत्सा करने से और पथ्य सेवन करते रहने से शांत रहते है उन्हें याप्य रोग कहा जाता है.