आयुर्वेद शास्त्र में तीन ही दोष माने जाते हैं –
- वात
- पित्त तथा
- कफ
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पांच महाभूतों से हमारा ये शारीर बना है और इसके अलावा छटी धातु चेतना (चेतना का आधार मन सहित आत्मा) कहा गया है. यही चिकित्सकीय पुरुष है.
पंचमहाभूतों में आकाश तत्व खाली स्थान के रूप में तथा पृथ्वी तत्व आधार स्वरुप है इसलिए ये दोनों निष्क्रिय हैं. इन दोनों में किसी प्रकार की कोई क्रिया नहीं होती. जल तत्व कफ है, अग्नि तत्व पित्त है और वायु तत्व ही वात है.
आयुर्वेद शास्त्र में प्राणी मात्र का नाम पुरुष है.
ये तीनो दोष यदि बढ़ जाएँ अथवा घट जाएँ तो स्वास्थ को हानि पहुंचाते हैं और अगर सम मात्रा में हों तो स्वास्थ ठीक रहता है.
दोषों का अपना स्वाभाव क्या है यह कहना कठिन है क्यूंकि ये पुरुष के आहार-विहार और ऋतू परिवर्तन आदि पर भी निर्भर हैं. वात, पित्त और कफ केवल दोष ही नहीं हैं, इन्हें धातु और मल भी कहा गया है. जब ये शारीर को रोगी करते हैं तो दोष कहे जाते हैं, जब मानव को स्वस्थ रखते हैं तब धातु और जब मलिन करते हैं तब मल कहे जाते हैं.
ये तीनो वात आदि दोष पुरे शारीर में व्याप्त रहते हैं पर नाभि से नीचे वात का, नाभि से हृदय का मध्य भाग पित्त का और हृदय से ऊपर कफ का आश्रय स्थान है.
अवस्था का अंतिम भाग- वृधावस्था, दिन का अंतिम भाग २-६ बजे, रात्रि का अंतिम भाग २-६ बजे और अन्न के पचने का अंतिम भाग वायु अथवा वात के प्रकोप का होता है. अवस्था का मध्य भाग – युवावस्था, दिन का मध्य भाग १०-२ बजे, रात्रि का मध्य भाग १०-२ बजे और अन्न के पचने का मध्य भाग पित्त के प्रकोप का होता है. अवस्था का आदि भाग – बाल्यावस्था, दिन का प्रथम भाग ६-१० बज, रात्रि का प्रथम भाग ६-१० बजे और भोजन पचने का प्रथम भाग कफ के प्रकोप का होता है.
वात दोष के प्रभाव से जठराग्नि विषम, पित्त दोष के प्रभाव से तीक्ष्ण और कफ दोष के प्रभाव से मंद हो जाती है.
आमाशय, पक्वाशय, अग्नान्य्शय, मूत्राशय, रक्ताशय, हृदय, उन्डूक तथा फुफ्फुस – इन अवयवों की परिधि को आयुर्वेद में कोष्ठ कहा गया है. कोष्ठ वात के प्रभाव से क्रूर, पित्त दोष से मृदु और कफ दोष से माध्यम रहता है, और तीनो दोषों के सामान होने पर भी माध्यम रहता है.
वात दोष की अधिकता से गर्भ की हीन प्रकृति, पित्त दोष की अधिकता से माध्यम प्रकृति और कफ दोष की अधिकता से उत्तम प्रकृति बनती है. यही सबमे श्रेष्ट मानी गई है. जो प्रकृति दो-दो दोषों के मिश्रण से बनती है वे निंदनीय मानी गई हैं, और सम्धातुज प्रकृति सबमे श्रेष्ठ मानी गई है.
दोषों के आधार पर पुरुष प्रकृति को सात भागों में विभाजित किया जाता है –
- वात प्रकृति हीन
- पित्त प्रकृति मध्य
- कफ प्रकृति उत्तम
- सम धातु प्रकृति सबमे उत्तम
- वात पित्त प्रकृति, वात कफ प्रकृति तथा पित्त कफ प्रकृति – ये तीनो निन्दित हैं.
वात दोष के गुण – यह रुक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म तथा चल (सदा गतिशील) होता है.
पित्त दोष के गुण – यह कुछ स्निग्ध, उष्ण, तीक्ष्ण, लघु, विस्र (आम गंध वाला), सर तथा द्रव होता है.
कफ दोष के गुण – यह स्निग्ध, शीत, गुरु, मंद, श्लक्षण, मृत्स्न तथा स्थिर होता है.
आयुर्वेदीय परिभाषा के अनुसार किन्ही दो-दो दोषों के क्षय या वृद्धि को संसर्ग कहते हैं और तीनो दोषों के एक साथ क्षय या वृद्धि को सन्निपात कहते हैं.
धातुओं का वर्णन –
आयुर्वेद में रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र – ये सात धातु कहे जाते हैं और जब वात आदि दोष इन्हें दूषित करते हैं तो इन्हें दुष्य कहते हैं.
मलों का वर्णन –
मूत्र, पुरीष, स्वेद (पसीना) आदि मल कहे जाते हैं. मुत्रादी मल भी दुष्य कहे गए हैं क्यूंकि वात आदि दोष इन्हें भी दूषित करते हैं.
ऊपर कहे गए वात आदि दोष, रस आदि धातु और मलों के सामान गुणों वाले पदार्थों के सेवन से इनमे वृद्धि होती है और इनके विपरीत गुणों वाले पदार्थों के सेवन से इनका क्षय होता है. दोष धातुओं और मलों का उचित प्रकार से बढ़ना और कम होना स्वास्थ्य में वृद्धि करता है और इनके अनुचित प्रकार से बढ़ने और कम होने से स्वास्थ्य में हानि होती है. बढे हुए दोष, धातु और मलों को घटा कर सम करना और घटे हुए दोष, धातु और मलों को बाधा कर सम करना ही चिकित्सा का क्रम होना चाहिए.
रसनाअर्थो रस:
अर्थात जो रसना (जीभ) का विषय है उसे रस कहा जाता है. आयुर्वेद में रसों की संख्या ६ है – १. स्वादु (मीठा), २. अम्ल (खट्टा), ३. लवण (नमकीन), ४. तिक्त ( नीम चिरायता आदि), ५. उषण (कटु – काली मिर्च आदि) और ६. कषाय (कसैला – हरीतकी आदि). ये रस भिन्न भिन्न पदार्थों में पाए जाते हैं और अंत से आगे की ओर बलवर्धक होते हैं, अर्थात मीठा सबसे अधिक बलवर्धक होता है. मधुर, अम्ल और लवण रस वात दोष को नष्ट करते हैं. तिक्त, कटु और कषाय रस कफ दोष को नष्ट करते हैं. कषाय, तिक्त और मधुर रस पित्त दोष को नष्ट करते हैं. इसके विपरीत रस वात, पित्त और कफ दोषों को बढ़ाते हैं.
मधुर, अम्ल और लवण रस वात दोष को नष्ट करते हैं. तिक्त, कटु और कषाय रस कफ दोष को नष्ट करते हैं. कषाय, तिक्त और मधुर रस पित्त दोष को नष्ट करते हैं. इसके विपरीत रस वात, कफ और पित्त दोष को बढ़ाते हैं.
द्रव्य का वर्णन
विधि भेद से द्रव्य तीन प्रकार के होते हैं –
- शमन ( वात आदि दोषों का शमन करने वाला)
- कोपन ( वात आदि दोषों को बढ़ने वाला)
- स्वास्थहित (स्वास्थ पुरुष के स्वास्थ्य को बनाये रखने वाला)
ये द्रव्य पससपर विपरीत गुणों वाले होते हैं. जो द्रव्य शमन होता है, वह उस दोष का कोपन नहीं करता अर्थात बढ़ता नहीं है, और जो कोपन होता है वो उस दोष को शांत नहीं करता.
शमन द्रव्य – जैसे – तैल, घृत और मधु. तैल स्निग्ध, उष्ण और गुरु गुणवाला होने के कारण वात दोष का शमन करता है क्यूंकि ये उससे विपरीत गुण वाला होता है. घृत मधुर, शीत और मंद गुण वाला होने के कारण पित्त दोष का शमन करता है. मधु – रुक्ष, तीक्ष्ण और कषाय गुण वाला होने के कारण विपरीत गुण वाले कफ दोष को नष्ट करता है.
कोपन द्रव्य – जो द्रव्य, वात आदि दोषों, रस आदि धातुओं और मूत्र आदि मलों को कुपित करता है. जैसे – यवक, पाटल, माष (उड़द), मछली, आममुलक, सरसों का तेल, मंदक, दधि आदि.
विरुद्ध पधार्थ जैसे दूध और मछली का एक साथ सेवन करना.
वीर्य का वर्णन
द्रव्यों में शीत गुण और उष्ण गुण की अधिकता के आधार पर दो प्रकार का ‘वीर्य’ माना जाता है. द्रव्यों की कर्म शक्ति को ही वीर्य कहते हैं.
वीपाक का वर्णन
कोई भी द्रव्य चाहे किसी भी रस से युक्त क्यों न हो उसका विपाक तीन प्रकार का होता है – मधुर, अम्ल तथा कटु.
रस का ज्ञान जीभ के स्पर्श से, विपाक का ज्ञान उसके कार्य को देखकर और वीर्य का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से होता है.
द्रव्यों के गुण
द्रव्यों में पाए जाने वाले परस्पर विपरीत २० गुण इस प्रकार हैं –
- गुरु = भारी
- लघु = हल्का
- मंद = चिरकारी – ये शीघ्र लाभ या हानि नहीं करता
- तीक्ष्ण = तीखा – शीघ्र लाभ या हानि करता है
- शीत = शीतल
- उष्ण = गरम
- स्निग्ध = चिकना
- रुक्ष = रुखा
- क्ष्लक्षण = साफ़
- खर = खुरदुरा
- सान्द्र = गाढ़ा
- द्रव = पतला
- मृदु = कोमल
- कठिन = कठोर
- स्थिर = अचल
- सर = चल – फैलने वाला, जो गतिशील हो
- सूक्ष्म = बारीक – छोटे से छोटे स्रोतों में प्रवेश करने वाला
- स्थूल = मोटा
- विषद = टूटने वाला
- पिच्छिल = लसीला – लुआबदार