हमारा शरीर पॉंच महा भूतों से मिलकर बना है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। इन पॉंचों में ही सब कुछ समाया हुआ है।
दोष, धातु और मल ही शरीर को धारण करते हैं।
आज का विषय दोष हैं। आयुर्वेद में तीन दोष कहे गये हैं – वात, पित्त और कफ। वायु और आकाश से मिल कर बना है – वात। जल और अग्नि से मिलकर बना है – पित्त और जल और पृथ्वी से मिलकर बनता है – कफ दोष। इन तीनों दोषों के संतुलन से शरीर ठीक प्रकार से कार्य करता है। जब ये तीनों दोष अपने सही संतुलन में रहते हैं तब इन्हें धातु कहा जाता है। ये हमारे शरीर को स्वस्थ रहने में मदद करते हैं। ये तीनों दोष सतत क्रियाशील रहते हैं और इसलिए दूषित हो जाते हैं। इसलिए इन्हें दोष कहा जाता है। इनके असंतुलन से या दूषित होने पर ये धातुओं को भी दूषित करते हैं और मल को भी दूषित कर देते हैं।
इन तीनों दोषों के दूषित होने पर या इनके संतुलन बिगड़ने पर ही शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है। जब हमारी दिनचर्या ठीक नहीं होती तब ही इन दोषों का संतुलन बिगड़ता है। जैसे समय पर भोजन न करना, आवश्यकता से अधिक या कम भोजन करना, शरीर के शौच आदि वेगों को रोकना और व्यायाम आदि न करना।
कफ के असंतुलन से 28, पित्त के असंतुलन से लगभग 50 और वात के असंतुलन से 80 प्रकार के रोग हो सकते हैं।
मन के विकार या गुण रजस, सत्व और तमस भी वात, पित्त और कफ से क्रमशः जुड़े हैं।
वात दोष शरीर में गति प्रदान करता है। जितनी भी गतिमान क्रियाएं हैं जैसे भोजन का पेट तक पहुंचना और फिर मल के रूप में शरीर से बाहर निकलना, इन सब को वात के द्वारा गति मिलती है।
पित्त का कार्य शरीर में भोजन को पचाना है।
कफ का कार्य शरीर में भण्डार करने का है और इससे शरीर की संरचना को बल मिलता है।
वैसे तो ये तीनों ही दोष पूरे शरीर में व्याप्त हैं फिर भी नाभि से नीचे का स्थान वात का, नाभि से हृदय के बीच का स्थान पित्त का और हृदय से ऊपर का स्थान कफ दोष का माना गया है। बचपन में कफ, यौवन में पित्त और वृद्ध अवस्था में वात का प्रकोप अधिक होता है। सुबह 6-10 बजे तक कफ, दिन में 10-2 बजे तक पित्त और दिन में 2-6 बजे तक वात प्रबल होता है। इसी तरह रात्रि का प्रथम प्रहर कफ, दूसरा प्रहर पित्त और तीसरा प्रहर वात प्रधान होता है।
कार्य के भेद से तीनों दोषों को पांच पांच भागों में बांटा जाता है।
प्रस्तुत वीडियो में इस को विस्तार से समझा जा सकता है।