विधि पूर्वक सेवन करने पर प्राय: सभी प्रकार के मद्य जठर अग्नि को बढ़ाते हैं. भोजन के प्रति रूचि को बढ़ाते है और तीक्ष्ण और उष्ण होते हैं. मात्रा अनुकूल सेवन करने पर मद्य तुष्टि (संतोष) और शारीरिक पुष्टि प्रदान करते हैं.

सामान्य मद्य मधुर, कटु और तिक्त रस वाला होता है. इसका पाक अम्ल होता है. सर (मल को निकलने वाला) और कुछ कषाय रस युक्त होता है.

यह स्वर, आरोग्य, प्रतिभा और मुखमंडल की कांती को बढ़ता है. यह लघु (पचने में आसान) है. जिन्हें निंद्रा नहीं आती और जिन्हें जरुरत से ज्यादा निंद्रा आती है, दोनों के लिए लाभप्रद है.

यह रक्त और पित्त को दूषित कर देता है. कृष को पुष्ट करता है और स्थूल को कृष करता है.

मद्य रुक्ष और सूक्ष्म होता है, स्रोतों को शुद्ध करता है और वात एवम कफदोषों को दूर करता है.

विधि विपरीत सेवन किया गया मद्य विष के सामान होता है. मद्य के गुण ओजस (शुक्र का उपधातु) का विनाश कर देते हैं.

नया मद्य गुरु (देर से पचने वाला) और त्रिदोश्कारक होता है.

पुराना मद्य लघु (पचने में आसान) और त्रिदोषशामक होता है.

अतएव नए मद्यों का सेवन नहीं करना चाहिए, केवल पुराने मद्यों, आसव, अरिष्ट आदि का सेवन करना चाहिए.

उष्ण गुण युक्त आहार-विहार के साथ, विरेचन के बाद और भूखे पेट मद्य का सेवन नहीं करना चाहिए. अत्यंत तीक्ष्ण, अत्यंत मृदु (जिसमे मादकता बहुत कम हो), जो समुचित सामिग्री से न बनाया गया हो और जिसे स्वच्छ न किया गया हो, ऐसे मद्य को नहीं पीना चाहिए.

एलोपैथी और होमिओपैथी में मद्यसार में औषधियां डालकर कुछ समय तक उसी में पड़े रहने पर उस-उस औषधि का टिंचर तैयार कर लिया जाता है. आयुर्वेदिक पधत्ति के अनुसार औषधि और द्रव का संधान करके आसव और अरिष्ट आदि तैयार कर लिए जाते है. औषध द्रव्यों के क्वाथ आदि से आसव-अरिष्ट अपना प्रभाव शीघ्र दिखलाते है क्यूंकि मद्य का एक गुण आशुकारी भी है.

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