द्रव शब्द अनेक अर्थों का वाचक है जैसे – घोड़े की तरह दौड़ना, चूना, रिसना, गीला, टपकना इत्यादि. प्राचीन भारतीय विद्वानों के मतानुसार जल तत्व की उत्पत्ति अग्नि तत्व से हुई है. वे जल को आप कहते हैं – जिसका अर्थ है – सर्वत्र व्याप्त. जल तथा बर्फ से भी भाप (वाष्प) निकलती रहती है जिससे ये सिद्ध होता है की जल तथा बर्फ में अग्नि की सत्ता विद्यमान है.

जल अनिवार्य है

जल की कमी से मुह सूखने लगता है शरीर ढीला पड़ जाता है और मृत्यु भी हो सकती है. स्वस्थ हो या रोगी हो किसी का भी निर्वाह जल के बिना नहीं हो सकता. इसलिए जल का एक पर्याय जीवन भी है और पीने योग्य जल प्राणी मात्र का प्राण है.

गंगा का जल

आकाश से गिरा हुआ गंगा का जल तृप्तिकारक, जीवन देने वाला, दृदय के लिए अच्छा, आनंद को देने वाला, बुद्धि को बढ़ने वाला, स्वच्छ और निर्मल, बिना किसी विशेष रस के, शीतल और अमृत के सामान हितकर होता है.

यह जल जिस प्रकार के वातावरण के प्रभाव में आता है उसके अनुसार हितकर या अहितकर हो जाता है.

जिस जल के बरसते समय घर में चांदी के बर्तन में परोसा हुआ शालीचावलों का भात ख़राब ना हो और निर्मल बना रहे – गंगा का जल है. इसे पीना चाहिए.

सामुद्र जल

ऊपर कहे गए जल के विपरीत जो जल है, सामुद्र जल है. यह पीने योग्य नहीं होता. अश्विन मास में इसे पिया जा सकता है.

समुद्री जल को ही सामुद्रि जल कहते हैं. मानसून के बादलों से जो जल बरसता है वो समुद्री जल ही है. जितनी भी तेज बहने वाली नदियाँ हैं उन्हें गंगा कहते हैं. गंगा का अर्थ है प्रवाह. इसलिए वेग से बहने वाली नदियों का जल शुद्ध होता है. गंगा का जल पीने योग्य होता है समुद्र का जल पीने योग्य नहीं होता. अश्विन मास से ज्येष्ठ मास तक बरसने वाला जल भी शुद्ध होता है और एनी मासों में बरसने वाला जल पीने योग्य नहीं होता. फिर भी परीक्षा कर के जल पियें.

पीने योग्य जल

जो जल बादलों से बरसा हो और किसी शुद्ध पात्र में इकठ्ठा कर रखा हो और किसी विकार से ग्रस्त ना हो – पिया जा सकता है. इसके अतिरिक्त झील और तालाबों का जल जिसको शुद्ध हवा स्पर्श करती हो और जिसमे सूर्य की किरणें पड़ती हो पिया जा सकता है.

न पीने योग्य जल

जो जल कीचड़, सीवर, पत्तों आदि के फैल जाने के गन्दा हो गया हो, जिसपर सूर्य-चन्द्रमा की किरणों का और शुद्ध वायु का स्पर्श ना होता हो, पहली वर्षा का जल पीने योग्य नहीं होता. जो जल गदला होने के कारण पचने में भारी हो, जिसके ऊपर झाग उठी हो, क्रीमी युक्त हो, स्पर्श में उष्ण हो या अधिक ठंडा हो ऐसा जल भी पीने योग्य नहीं होता. लूता आदि प्राणियों की लार से, मल-मूत्र से तथा विष से दूषित जल को भी नहीं पीना चाहिए.

शक्ति से अधिक जल किसी को नहीं पीना चाहिए.

भोजन के बिच में पानी पीने से शरीर सम रहता है, भोजन के बाद जल पीने से शारीर मोटा हो जाता है और भोजन से पहले पानी पीने से शरीर दुर्बल हो जाता है.

शीतल जल के सेवन से मदात्ययरोग, ग्लानी, मूर्च्छा, छरदी, श्रम, भ्रम, उष्ण, दाह, पित्ताविकार, और विषविकार में लाभ होता है.

उष्ण जल जठर अग्नि को प्रदीप्त करता है, आमरस को पचता है, कंठ के लिए उत्तम है, शीघ्र पचता है, बस्ती का शोधक है, हिक्का, अफरा, वातविकार, कफविकार, तत्काल किये गए वमन, विरेचन, नवज्वर, कास, आमजिर्ण, पीनस, स्वास, पाश्र्व्शुल रोगों में भी इसका प्रयोग प्रशंशित है.

जल को उबाल कर चान लें और उसे ठंडा करने के लिए रख दें. यह निर्दोष जल सभी के पीने योग्य होता है. इस जल की उत्तमता १२ या 24 घंटों तक ही रहती है.

नारियल का जल

नारियल के कच्चे फल के भीतर जो दूध के आकार का पानी होता है, वह स्निग्ध, स्वादु, वृष्य (वीर्य को बढ़ने वाला), शीतल तथा लघु होता है. यह बस्ती को शुद्ध करता है, प्यास, पित्तविकार, वातविकार को नष्ट करता है और जठर अग्नि को प्रदीप्त करता है.

उत्तम तथा अधम जल

वर्षा ऋतू में दिव्य (बरसने वाला) जल उत्तम होता है तथा नदियों का जल पीने योग्य नहीं होता.

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