आठ प्रकार के मूत्र चिकित्सा में उपयोगी होते हैं –

  • गाय
  • बकरी
  • भेडी
  • महिषी
  • हाथी
  • घोडा
  • उंट
  • तथा गधा

सामान्यतः सभी प्रकार के मूत्र पित्तकारक, रुक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, लवणरसयुक्त तथा कटुरसयुक्त होते हैं. ये कृमी, शोथ, उदररोग, आनाह (अफरा), शूल, पांडू रोग, कफविकार, वातविकार, गुल्म, अरुचि, विषविकार (विशेषकर सर्पविष), श्वित्र (सफ़ेद दाग वाला कुष्ठ), कुष्ठ तथा अर्श रोगों में लाभ प्रदान करते हैं.

शुश्रुत के मत के अनुसार गाय, भेंस, बकरी, भेड़ (स्त्री जाती का) और घोडा, हाथी गधा और ऊंट (पुरुष जाती) का ग्रहण करना चाहिए. इन्होने नर मूत्र का भी ग्रहण करते हुए कहा है कि ये विष का नाश करने वाला होता है. इस प्रकार, औषधि में उपयोगी मुत्रों की संख्या ९ हो जाती है.

मूत्र प्रयोग का क्षेत्र – विरेचन के लिए इसका प्रयोग निरुहणबस्ती द्वारा किया जाता है. ये मूत्र विविध प्रकार के लेपों में तथा स्वेदन कार्य में उपयोगी होते हैं. ये दीपन, पाचन तथा मलभेदी होते हैं.

ऊपर कहे गए सभी मुत्रों में गौमूत्र उत्तम है.

मल एवम मूत्र में पित्त वर्धक गुण पाए जाते हैं इसलिए इनका प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है. मरे हुए प्राणियों के पित्ताशय से पित्त द्रव का संग्रह कर लिया जाता है और फिर इसका प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है. गाय के पित्त को ‘गौरोचन’ कहते हैं. इसका प्रयोग चिकित्सा और तांत्रिक प्रयोगों में भी किया जाता है.

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