दधी गुण वर्णन
दही रस एवं पाक में अम्ल होता है, ग्राही अर्थात मल को बंधने वाला, उष्ण और वातनाशक होता है. अग्नि वर्धक एवं शोथकरक होता है. भोजन के प्रति रूचि को बढ़ता है. जाडा लगकर आने वाले विषम ज्वर में, पीनसरोग में और मूत्रकृच्छ रोग में दही का प्रयोग हितकर है. गृहणी रोग में मक्खन निकला हुआ दही हितकर होता है.
रात में दही का सेवन नहीं करना चाहिए, उष्ण या गर्म किया हुआ दही नहीं खाना चाहिए. वसंत, ग्रीष्म और शरद ऋतू में दही का सेवन नहीं करना चाहिए. मुंग की डाल के वडे बिना भी दही नहीं खाना चाहिए. मधु, मिश्री या घी से रहित दही ना खाएं. आंवलों से रहित दही ना खाएं. प्रति-दिन और मंदक (जो ठीक से जमा ना हो) दही ना खाएं. इस सभी प्रकार के निषिद्ध दही के सेवन से कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं जैसे – ज्वर, रक्त-पित्त, विसर्प, कुष्ठ रोग, पांडूरोग और भ्रम आदि. आजकल दही का सेवन हर काल में और हर प्रकार से किया जाता है पर ऊपर कहे गए रोग होने की सम्भावना बनी रहती है.
तक्र (मट्ठा या छाछ)
यह लघु, कषाय, अम्ल, जठर अग्नि को प्रदीप्त करने वाला और कफ-वात नाशक होता है. यह शोथ रोग, उदार रोग, अर्शो रोग, गृहणी रोग, मुत्राघात, अरुचि, फ्लिहाविकार, गुल्म, घृत-व्यापत, गरविष तथा पांडू रोग को जीत लेता है.
जिस दही में आधा पानी मिलकर एवं मथकर मक्खन अलग कर लिया जाता है उसे तक्र कहते हैं. यह न ज्याद पतला और न ही ज्यादा गाढ़ा होता है. यह तक्र मधुर विपाकी और रस में अम्ल और कषाय होता है.
बिना पानी मिलाय और मक्खन को अलग किये बिना मथकर ‘घोल’ बनता है.
दही के साथ दूध को पकाने से दधि-कूर्चिका और तक्र के साथ दूध को पकाने से तक्र-कूर्चिका बनती है. तक्र और दही के गाढे भाग को भी कूर्चिका या पनीर कहते हैं. तक्र-कूर्चिका संग्राही, वात कारक एवं रुक्ष होती है और कठिनाई से पचती है.
दूध के गाढे भाग को भी कूर्चिका कहते हैं, जिसे लोकभाषा में मावा या खोया कहा जाता है. दूध को फाड़कर जो घन भाग बाख जाता है उसे किलात या चेन कहते हैं.
दही के पानी को या छाछ के पानी को मंड या मस्तु कहते हैं. यह पचने में तक्र से भी लघु होता है.
घाव लग जाने पर, ग्रीष्म काल में, दुर्बलता, मूर्च्छा, भ्रम, दाह और रक्त-पित्त रोग मै तक्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए. शीत काल में, अग्नि मंद रोग में, कफ से उत्पन्न विकारों में, स्रोतों में रूकावट आने पर, और वात के दूषित होने पर तक्र का प्रयोग उत्तम है.
मधुर रस वाला तक्र कफ को बढ़ने वाला और पित्त को शांत करने वाला होता है. अम्ल रस वाला तक्र वात नाशक और पित्त कारक होता है. वात दोष में अम्ल तक्र में नमक मिलाकर, पित्त दोष में मधुर तक्र में चीनी मिलकर, तथा कफ दोष में तक्र में सोंठ, मरीच, पीपल के साथ कोई एक क्षार मिलकर पीना चाहिए.
मस्तु का वर्णन
मस्तु (दही का पानी) भी टकर के समान गुणों वाला होता है. यह सर, स्रोतों का शोधक, विष्टम्भ (कब्जियत) को दूर करता है और पचने में लघु होता है. जब तक्र का गाढ़ा भाग निचे बैठ जाता है, तब ऊपर के जलीय भाग को तक्र मस्तु कहते हैं.
नवनीत वर्णन
ताज़ा निकला गया (नवनीत) मक्खन वीर्य वर्धक (वृष्य) शीतल, कान्तिकारक, बल वर्धक, जठर अग्नि को तीव्र करने वाला और मल को बंधने वाला (संग्राही) होता है. वात विकार, पित्त विकार, रक्त विकार, क्षय रोग, अर्शोरोग, मुख प्रदेश का लकवा (अर्दित) तथा कास रोग का विनाश करता है. दूध को मथ कर निकला गया मक्खन विशेषकर संग्राही होता है. यह रक्त, पित्त और नेत्र रोगों में लाभदायक है.
दूध को मथकर निकाले गए मक्खन को नवनीत कहते हैं, और आज के दूध को गरम करके, दही जमा के अगले दिन मथकर निकाले गए मक्खन को हेयंगवीन कहते हैं. यह भी नवनीत का ही एक प्रकार-भेद है.
घृत वर्णन
घी बुद्धि, स्मृति (स्मरण शक्ति), मेधा (घारणा शक्ति वाली बुद्धि), जठर अग्नि, शारीरिक बल, दीर्घायु, शुक्र और दृष्टि के लिए उत्तम है. घी बालकों और वृद्धों के लिए उत्तम है. प्रजा (संतान), कांटी, सुकुमारता, और सुरीला या तेज स्वर चाहने वालों के लिए अच्छा है. क्षत, क्षीण (क्षय पीड़ित), विसर्प रोगी, शस्त्रहत, अग्निदाह से पीड़ित रोगियों के लिए लाभदायक है. वातविकार, पित्तविकार, विषविकार, उन्माद, शोष, अलक्ष्मी, तथा ज्वर का नाश करता है.
घी समस्त स्नेह्द्रव्यों में श्रेष्ट है. घी शीतवीर्य है और यौवन को स्थिर रखने वाले द्रव्यों में भी श्रेष्ठ है. शाश्त्रों में कही गई विधियों से पकाकर रखा गया घी अनेकों शक्तियों से पूर्ण है और अनेकों चिकित्सा में उपयोगी कार्यों को करता है. पुराना घी मदपान जनित मदात्यय आदि विकारों में, अपस्मार, मूर्च्छा, सर, कान तथा योनी के रोगों में लाभकारी है. यह व्रणों का रोपण और शोधन करता है. घी जितना पुराना होगा उसका वर्ण उतना मोमिया हो जाता है और इसमें एक विशेष प्रकार की गंध आने लगती है. फिर इसका उपयोग केवल चिकित्सा के लिए ही किया जा सकता है.
किलाट आदि का वर्णन
दूध से बनाये गए किलाट, पीयूष, कूर्चिका, मोराण या मोरट आदि बल, शुक्र, निद्रा और कफ दोष को बढ़ाते हैं. ये विष्टंभी, गुरु तथा दोषकारक होते हैं.
दूध तथा घी में गाय का दूध और घी उत्तम और भेद का दूध और घी निन्दित कहे गए हैं.