ऋतू का अर्थ होता है – मौसम और चर्या का अर्थ होता है – क्या करें और क्या न करें. अर्थात ऋतुओं के अनुसार हमे अपना जीवन कैसे जीना चाहिए – ऋतुचर्या है. अगर हम ऋतुचर्या का ध्यान रखें तो हमारा जीवन स्वास्थ्य होगा अन्यथा हमारा स्वास्थ्य ख़राब रहेगा और हम जीवन का आनंद नहीं ले पाएंगे.

आयुर्वेद के अनुसार कुल ६ ऋतुएं हैं. प्र्यत्येक ऋतू २ मास या २ महीनों की होती है.

उत्तरायण – आदान काल

इस ऋतू में मनुष्य का बल कम होता है और अग्नि प्रधान होती है. सूर्य और वायु प्रबल होने के कारण पृथ्वी की शीतलता को हर लेते हैं. वसंत ऋतू में तिक्त, कटु और कषाय रस का सेवन करें. ग्रीष्म ऋतू में विशेष कर मधुर रस का सेवन करें.

  • शिशिर ऋतू – माघ-फाल्गुन – मध्य जनवरी से मध्य मार्च – ये सर्दी का मौसम है और इसमें ओस पड़ती है. इस ऋतू में हेमंत ऋतू की तरह ही बल उत्तम होता है, जठराग्नि भी तीव्र होती है और व्यायाम आदि के पश्यात भोजन करें. इस ऋतू में मांस आदि का सेवन करें.
  • वसंत ऋतू – चैत्र-वैशाख – मध्य मार्च से मध्य मई – स्प्रिंग सीजन या वसंत. वसंत ऋतू में कफ सूर्य की वजह से पिघलने लगता है और जठराग्नि भी मंद पद जाती है. इस स्थिति में कफ को संयमित करना आवश्यक हो जाता है. इसे वमन और नस्य की सहयता से किया जा सकता है. भोजन हल्का और सुपाच्य होना चाहिए. व्यायाम आदि भी कम करना चाहिए. एक वर्ष पुराने गेहूँ, बाजरा एवं शहद का सेवन करना चाहिए. रेगिस्थान जैसे प्रदेश के प्राणियों का मास खाया जा सकता है जिसे अग्नि पर भुना गया हो. इस ऋतू में आम के रस का भी सेवन करना चाहिए, मित्रों के साथ और प्रेमिका द्वारा परोसा गया. आसव, अरिष्ट, सिधु, मर्द्विका या जल के साथ शहद का भी सेवन किया जाना चाहिए. इस ऋतू में दिन में सोना नहीं चाहिए और हलके और सुपाच्य भोजन करना चाहिए.
  • ग्रीष्म ऋतू – जयेष्ट-अषाढ़ – मध्य मई से मध्य जुलाई – गर्मी का मौसम. ग्रीष्म ऋतू में कफ घाट जाता है और वात बढ़ जाता है. इसमें लवण, कषाय तथा अम्ल रस का सेवन नहीं करना चाहिए. व्यायाम आदि भी कम करना चाहिए. सूर्य की तीव्र रौशनी से बचना चाहिए. भोजन मधुर रस प्रधान और हल्का होना चाहिए. मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए और अगर आवश्यक हो तो जल मिला के लेना चाहिए. अधिक मदिरापान से परेशानियाँ बढ़ सकती हैं. सफ़ेद उबले हुए चावल, रेगिस्थान के प्राणियों के मांस के साथ खाए जा सकते हैं. छाछ आदि का सेवन भी किया जा सकता है.

दक्षिणायन – विसर्ग काल

इस ऋतू में मनुष्य का बल उत्तम होता है और इसमें जल तत्व प्रधान होता है. इस ऋतू में वर्षा, शीतल वायु और बादलों के कारण पृथ्वी शीतल हो जाती है. इस ऋतू में चंद्रमा प्रधान होता है. इस ऋतू में मधुर, अम्ल और लवण रसों का सेवन करें.

  • वर्षा ऋतू – श्रावण-भाद्रपद – मध्य जुलाई से मध्य सितम्बर – बारिश का मौसम. वर्षा ऋतू में जठराग्नि और भी मंद हो जाती है. तीनो दोष इस ऋतू में असंतुलित हो जाते हैं और कई साड़ी बिमारियों को उत्पन्न करते हैं. इस ऋतू में दोषों के असंतुलन को कम करने के उपाय किये जाने चाहिए और जठराग्नि को भी तीव्र करने के प्रयास करने चाहिए. पुराने अनाज का सेवन करना चाहिए और मांस रस और शुष्क प्रदेशों के प्राणियों का मांस एवं हलके और सुपाच्य भोजन का सेवन करना चाहिए. वर्षा का जल, या गहरे कुओं का जल या उबाल कर ठंढा किया हुआ जल ही प्रयोग करना चाहिए. जिस दिन सूर्य की रौशनी ना हो, हल्का भोजन करना चाहिए. ज्यादा शारीरिक श्रम नहीं करना चाहिए और घरों के उपरी मंजिलों पर रहना चाहिए.
  • शरत ऋतू – अश्विन-कार्तिक – मध्य सितम्बर से मध्य नवेम्बर – ऑटम सीजन या शरत. शरद ऋतू में पित्त प्रधान होता है और शारीर की गर्मी बढ़ने लगती है. इसलिए इस ऋतू में आप गाय के घी का इस्तेमाल ज्यादा कर सकते है, चावल और गेहूँ भी खा सकते है. मांस , दही का, और जिस भोज्य पदार्थ में सोडा पड़ता है, उसका सेवन नहीं करना चाहिए. ज्यादा धुप में ना घूमें. और दोपहर को सोना नहीं चाहिए.
  • हेमंत ऋतू – मार्गशीर्ष-पौष – मध्य नवम्बर से मध्य जनवरी – सर्दी का मौसम इस ऋतू में मनुष्य का बल उत्तम होता है. जठराग्नि प्रबल होती है तथा मधुर, कषाय तथा लवण सासों का सेवन करें. रातें लम्बी होने के कारण सुबह भूक अच्छी लगती है. तेल मालिश और व्यायाम आदि के पश्च्यात स्नानादि से निवृत हो कर भोजन करना चाहिए.

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