राग आदि रोग मानव के पीछे लगे रहते हैं. ये पुरे शारीर में फैले रहते हैं और उत्सुकता, मोह और बेचैनी उत्पन्न करते हैं. राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि को मानसिक रोग कहा गया है. मानसिक रोगों में मन का आधार देह है, इसलिए ये मन के साथ-साथ देह को भी पीड़ित करते हैं. जिन पुरुष और स्त्रियों का चित्त शुद्ध होता है उनको ये मानसिक रोग पीड़ा नहीं पहुंचाते. 

जब मानव इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों को ग्रहण करने की चिंता करता है तो उसके वास्तविक मार्ग में रूकावट आती है – इसे राग या रजोगुण कहते हैं. राग से कामवासना का उदय होता है असफलता मिलने पर क्रोध आता है, क्रोध के कारण भ्रम पैदा होता है जिससे बुधि का विनाश होता है और बुधि के विनाश से लोक और परलोक दोनों का विनाश हो जाता है. ये है रागादी रोगों का विनाश क्रम!

जो मनुष्य थोड़ी सी भी धर्मसंहिता को पढ़ कर धर्म के अनुसार आचरण करता है और अपने चित्त को शुद्ध रखते हुए रागादी रोगों से बचा रहता है उसका लोक और परलोक दोनों में ही कल्याण होता है.

धर्म, अर्थ और सुख – इन तीन पुरुषार्थों को प्राप्त करने का साधन आयु है, इसलिए आयु या सुखायु की कामना करने वाले मनुष्य को आयुर्वेद में दिए निर्देशों का आदर करना चाहिए. 

आयुर्वेद वह शाश्त्र है जिसमे आयु, सुख आयु, दुःख आयु तथा अहित आयु का वर्णन है और आयु के हित और अहित के लिए आहार-विहार और औशाधियौं का वर्णन है. 

जिससे लोक का धारण पोषण होता है वह धर्म है. जिसे समाज प्राप्त करना चाहता है वह अर्थ है. सुख दो प्रकार का होता है – एक – जिससे तत्काल सुख प्रतीत होता है और दूसरा – जो आने वाले समय को भी सुखमय बनता है. 

ऐसी मान्यता है की सबसे पहले ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद का स्मरण करके प्रजापति दक्ष को प्रदान किया, प्रजापति दक्ष ने इसे अश्वनी कुमारों को पढाया, अश्वनी कुमारों ने इंद्र को पढाया, इंद्र ने अत्रिपुत्र आदि मह्रिषियों को पढाया, आत्रेय आदि ने अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, हारित, क्षारपाणी आदि को पढाया और फिर इन मह्रिषियों ने अलग अलग तंत्रों की विस्तार से रचना की. 

आयुर्वेद के आठ अंग हैं – 

  • कायचिकित्सा – इसी में सम्पूर्ण शारीर को पीड़ित करने वाले आमाशय और पक्वाशय से उत्पन्न ज्वर आदि रोगों की चिकित्सा की जाती है.
  • बालतंत्र – बालकों के शारीर में परिपूर्ण बल और धातुओं का आभाव होता है इसलिए इसका स्वतंत्र वर्णन किया गया है. 
  • गृहचिकित्सा – इस विषय का आज कोई प्राचीन स्वतंत्र तंत्र उपलब्ध नहीं है. 
  • उर्धवांगचिकित्सा – आँख, मुख, कान और नासिका में आधारित रोगों की चिकित्सा ही इस अंग का प्रधान क्षेत्र है.  
  • शल्यचिकित्सा – आयुर्वेद के आठों तंत्रों में यही तंत्र प्रधान है. मूलतः शल्यतंत्र में यंत्र, शाश्त्र, क्षार, अग्नि के प्रयोगों का निर्देश मिलता है. 
  • दंस्ट्राविषचिकित्सा – इसमें विष आदि के लक्षण और उनकी शांति के उपायों का वर्णन मिलता है. 
  • जराचिकत्सा या रसायनतंत्र उसे कहा गया है जो यौवन को कुछ समय के लिए पुनः स्थापित करता है. 
  • वृषचिकित्सा या वाजीकरणतंत्र में वीर्य को बढाने और मैथुन क्रिया को सुखकर और सुगम बनाने के विषय में वर्णन है. 

सावधान – रसायन एवम वाजीकरण प्रयोगों का उपयोग केवल चिकित्सा के लिए ही होना चाहिए दुराचार के लिए इनका प्रयोग ना करें एवम किसी योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही इसका प्रयोग करें.

रोग या रोगों की शांति के लिए जो भी उपाय चिकित्सक करता है उसे ही चिकित्सा कहा जाता है. उचित चिकित्स के लिए आवश्यक है की चिकित्सक, औषधि, परिचारक तथा रोगी उचित गुणों वाले हों तभी सही चिकित्सा संभव है. 

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